आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर
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सुनसान की झोपड़ी
इस झोपड़ी के चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ है। प्रकृति स्तब्ध है, सुनसान का सूनापन अखर रहा है। दिन बीता, रात आई। अनभ्यस्त वातावरण के कारण नींद नहीं आ रही। हिंस्रपशु, चोर, साँप, भूत आदि तो नहीं पर अकेलापन डरा रहा था। शरीर के लिए करवटें बदलने के अतिरिक्त कुछ काम न था। मस्तिष्क खाली था, चिन्तन की पुरानी आदत सक्रिय हो उठी। सोचने लगा- अकेलेपन में डर क्यों लगता है?
भीतर से एक समाधान उपजा-मनुष्य समष्टि का अंश है। उसका पोषण समष्टि द्वारा ही हुआ। जल तत्त्व से ओत-प्रोत मछली का शरीर जैसे जल में ही जीवित रहता है, वैसे ही समष्टि का एक अंग, समाज का एक घटक, व्यापक चेतना का एक स्फुल्लिग होने के कारण उसे समूह में ही आनन्द आता है। अकेलेपन में उस व्यापक समूह चेतना से असम्बद्ध हो जाने के कारण आन्तरिक पोषण बन्द हो जाता है, इस अभाव में बेचैनी ही सुनेपन का डर हो सकता है।
कल्पना ने और आगे दौड़ लगाई। स्थापित मान्यता की पुष्टि में उसने जीवन के अनेक संस्मरण ढूंढ़ निकाले। सनेपन के, अकेले विचरण करने के अनेक प्रसंग याद आये, उनमें आनन्द नहीं था, समय ही काटा गया था। स्वाधीनता संग्राम में जेल यात्रा के उन दिनों की याद आई जब काल कोठरी में बन्द रहना पड़ा था। वैसे उस काल कोठरी में कोई कष्ट न था, पर सुनेपन का मानसिक दबाव पड़ा था। एक महीने के बाद जब कोठरी से छुटकारा मिला तो पके आम की तरह पीला पड़ गया था। खड़े होने में आँखों तले अन्धेरा आ जाता था।
चूँकि सूनापन बुरा लग रहा था, इसलिए मस्तिष्क के सारे कलपुर्जे उसकी बुराई साबित करने में जी जान से लगे हुए थे। मस्तिष्क एक जानदार नौकर के समान ही तो ठहरा। अन्तस् की भावना और मान्यता जैसी होती है, उसी के अनुरूप वह विचारों का, तर्को, प्रमाणों, कारणों और उदाहरणों का पहाड़ जमा कर देता है। बात सही या गलत- यह निर्णय करना विवेक बुद्धि का काम है। मस्तिष्क की जिम्मेदारी तो इतनी भर है, कि अभिरुचि जिधर भी चले उसके समर्थन के लिए औचित्य सिद्ध करने के लिए आवश्यक विचार सामग्री उपस्थिति कर दे। अपना मन भी इस समय वही कर रहा था।
मस्तिष्क ने अब दार्शनिक ढंग से सोचना आरम्भ कर दिया। स्वार्थी लोग अपने को अकेला मानते, अकेले ही लाभ-हानि की बात सोचते हैं। उन्हें अपना कोई नहीं दीखता, इसलिए वे सामूहिकता के आनन्द से वंचित रहते हैं। उनका अन्त:करण सूने मरघट की तरह साँय-साँय करता रहता है। ऐसे अनेकों परिचित व्यक्तियों के जीवन चित्र सामने आ खड़े हुए जिन्हें धन वैभव की, श्री समृद्धि की कमी नहीं; पर स्वार्थ सीमित होने के कारण सभी उन्हें पराये लगते हैं, सभी को शिकायत और कष्ट है।
विचार प्रवाह अपनी दिशा में तीव्र गति से दौड़ा चला जा रहा था, लगता था वह सूनेपन को अनुपयुक्त ही नहीं हानिकारक और कष्टदायक भी सिद्ध करके छोड़ेगा, तब अभिरुचि अपना प्रभाव उपस्थित करेगीइस मूर्खता में पड़े रहने से क्या? अकेले में रहने की अपेक्षा जन-समूह में रहकर जो कार्य हो वह सब क्यों न प्राप्त किया जाय?
विवेक ने मन की गलत दौड़ को पहचाना और कहा- यदि सूनापन ऐसा ही अनुपयुक्त होता तो ऋषि और मुनि, साधक, सिद्ध, विचारक और वैज्ञानिक क्यों उसे खोजते? क्यों उस वातावरण में रहते? यदि एकान्त का कोई महत्त्व न होता, तो समाधि-सुख और आत्मदर्शन के लिए उसकी तलाश क्यों होती? स्वाध्याय-चिन्तन के लिए तप और ध्यान के लिए क्यों सूनापन ढूंढ़ा जाता? दूरदर्शी महापुरुषों का मूल्यवान् समय क्यों उस असुखकर अकेलेपन में व्यतीत होता?
लगाम खींचने पर जैसे घोड़ा रुक जाता है, उसी प्रकार वह सूनेपन को कष्टकर सिद्ध करने वाला विचार प्रवाह भी रुक गया। निष्ठा ने कहाएकान्त साधना की आत्म प्रेरणा असत् नहीं हो सकती। श्रद्धा ने कहा-जो शक्ति इस मार्ग पर खींच लाई है, वह गलत मार्गदर्शन नहीं कर सकती। भावना ने कहा- जीव अकेला आता है अकेला जाता है, अकेला ही अपनी शरीर रूपी कोठरी में बैठा रोता है, क्या इस निर्धारित एकान्त विधान में उसे कुछ असुखकर प्रतीत होता है? सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है, वायु अकेला प्रवहमान है, इसमें उन्हें कुछ कष्ट है?
विचार से विचार कटते हैं, मन:शास्त्र के इस सिद्धान्त ने अपना पूरा कार्य किया। आधी घड़ी पूर्व जो विचार अपनी पूर्णता अनुभव कर रहे थे, अब वे कटे वृक्ष की तरह गिर पड़े, प्रतिरोधी विचारों ने उन्हें परास्त कर दिया। आत्मवेत्ता इसलिए अशुभ विचारों को शुभ विचारों से काटने का महत्त्व बताते हैं। बुरे से बुरे विचार चाहे वे कितने ही प्रबल क्यों न हों, उत्तम प्रतिपक्षी विचारों से काटे जा सकते हैं। अशुभ मान्यताओं को शुभ मान्यताओं के अनुरूप कैसे बनाया जा सकता है, यह उस सूनी रात में करवटें बदलते हुए मैंने प्रत्यक्ष देखा। अब मस्तिष्क एकान्त की उपयोगिता-आवश्यकता और महत्ता पर विचार करने लगा।
रात धीरे-धीरे बीतने लगी। अनिद्रा से ऊबकर कुटिया के बाहर निकला, तो देखा कि गंगा की धारा अपने प्रियतम समुद्र से मिलने के लिए व्याकुल प्रेयसी की भाँति तीव्रगति से दौड़ी चली जा रही थी। रास्ते में पड़े हुए पत्थर उसका मार्ग अवरुद्ध करने का प्रयत्न करते, पर वह उनके रोके रुक नहीं पा रही थी। अनेकों पाषाण खण्डों की चोट से उसके अंग-प्रत्यंग घायल हो रहे थे, तो भी वह न किसी की शिकायत करती थी और न निराश होती थी। इन बाधाओं का उसे ध्यान भी न था। अन्धेरे का, सुनसान का उसे भय न था। अपने हृदयेश्वर से मिलन की व्याकुलता उसे इन सब बातों का ध्यान भी न आने देती थी। प्रिय के ध्यान में निमग्न हर-हर कल-कल का प्रेम गीत गाती हुई गंगा निद्रा और विश्राम को तिलांजलि देकर चलने से ही लौ लगाए हुए थी।
चन्द्रमा सिर के ऊपर आ पहुँचा था। गंगा की लहरों में उसके अनेकों प्रतिबिम्ब चमक रहे थे, मानो एक ब्रह्म अनेक शरीरों में प्रविष्ट होकर एक से अनेक होने की अपनी माया दृश्य रूप से समझा रहा हो। दृश्य बड़ा सुहावना था। कुटिया से निकलकर गंगा तट के एक बड़े शिलाखण्ड पर जा बैठा और निर्मिमेष होकर उस सुन्दर दृश्य को देखने लगा। थोड़ी देर में झपकी लगी और उस शीतल शिलाखण्ड पर ही नींद आ गई।
लगा कि वह जलधारा कमल पुष्पी-सी सुन्दर एक देव कन्या के रूप में परिणत होती है। वह अलौकिक शान्ति, समुद्र-सी सौम्य मुद्रा से ऐसी लगती थी मानो इस पृथ्वी की सारी पवित्रता एकत्रित होकर मानुषी शरीर में अवतरित हो रही हो। वह रुकी नहीं, समीप ही शिलाखण्ड पर जाकर विराजमान हो गई, लगा- मानो जागृत अवस्था में ही यह सब देखा जा रहा हो।
उस देव कन्या ने धीरे-धीरे अत्यन्त शान्त भाव से मधुर वाणी में कुछ कहना आरम्भ किया। मैं मन्त्रमोहित की तरह एकचित्त होकर सुनने लगा। वह बोली- नर-तनधारी आत्मा तू अपने को इस निर्जन वन में अकेला मत मान। दृष्टि पसार कर देख, चारों ओर तू ही बिखरा पड़ा है। मनुष्य तक अपने को सीमित मत मान। इस विशाल सृष्टि में मनुष्य भी एक छोटा-सा प्राणी है उसका भी एक स्थान है, पर सब कुछ वही नहीं है। जहाँ मनुष्य नहीं वहाँ सूना है ऐसा क्यों माना जाय? अन्य जड़ चेतन माने जाने वाले जीव भी विश्वात्मा के वैसे ही प्रिय हैं, जैसा मनुष्य तू। उन्हें क्यों अपना सहोदर नहीं मानता? उनमें क्यों अपनी आत्मा नहीं देखता? उन्हें क्यों अपना सहचर नहीं समझता। इस निर्जन में मनुष्य नहीं, पर अन्य अगणित जीवधारी मौजूद हैं। पशु-पक्षियों की, कीट-पतंगों की, वृक्ष-वनस्पतियों की अनेक योनियाँ इस गिरि कानन में निवास करती हैं। सभी में आत्मा है, सभी में भावना है। यदि तू इन अचेतन समझे जाने वाले चेतनों की आत्मा से अपनी आत्मा को मिला सके तो हे पथिक ! तू अपनी खण्ड आत्मा को समग्र आत्मा के रूप में देख सकेगा।
धरती पर अवतरित हुई वह दिव्य सौन्दर्य की अद्भुत प्रतिमा देव-कन्या बिना रुके कहती ही जा रही थी- “मनुष्य को भगवान् ने बुद्धि दी, पर वह अभागा उसका सुख कहाँ ले सका? तृष्णा और वासना में उसने उस दैवी वरदान का दुरुपयोग किया और जो आनन्द मिल सकता था, उससे वंचित हो गया। वह प्रशंसा के योग्य प्राणी करुणा का पात्र, पर सृष्टि के अन्य जीव इस प्रकार की मूर्खता नहीं करते। उनके चेतन की मात्रा न्यून भले ही हो, पर भावना को उनकी भावना के साथ मिलाकर तो देख, अकेलापन कहाँ-कहाँ है? सभी तो तेरे सहचर हैं, सभी तो तेरे बन्धु-बान्धव हैं। ”
करवट बदलते ही नींद की झपकी खुल गई। हड़बड़ा कर उठ बैठा। चारों ओर दृष्टि दौड़ाई तो वह अमृत-सा सुन्दर उपदेश सुनाने वाली देवकन्या वहाँ न थी। लगा मानो वह इस सरिता में समा गई हो, मानुषी रूप छोड़ कर जलधारा में परिणत हो गई हो। वे मनुष्य की भाषा में कहे गये शब्द सुनाई नहीं पड़ते थे, पर हर-हर कल-कल की ध्वनि में भाव वे ही गुंज रहे थे, सन्देश वही मौजूद था। ये चमड़े वाले कान उसे सुन तो नहीं पा रहे थे, पर कानों की आत्मा उसे अब भी समझ रही थीग्रहण कर रही थी।
यह जागृति थी या स्वप्न? सत्य था या भ्रम? मेरे अपने विचार थे या दिव्य सन्देश? कुछ समझ नहीं पा रहा था। आँखें खोली, सिर पर हाथ फिराया। जो सुना-देखा था उसे ढूँढ़ने का पुन: प्रयत्न किया, पर कछ मिल नहीं पा रहा था, कछ समाधान नहीं हो पा रहा था।
इतने में देखा कि उछलती हुई लहरों पर थिरकते हुए अनेक चन्द्र प्रतिबिम्ब एक रूप होकर चारों ओर से इकट्ठे हो रहे और मुस्कराते हुए कुछ कह रहे हैं। इनकी बात सुनने की चेष्टा की, तो नन्हें बालक जैसे वे प्रतिबिम्ब कहने लगे। हम इतने चन्द्र तुम्हारे साथ खेलने के लिए हँसने-मुस्कराने के लिए मौजूद हैं। क्या हमें तुम अपना सहचर न मानोगे? क्या हम अच्छे साथी नहीं हैं? मनुष्य तुम अपनी स्वार्थी दुनियाँ में से आये हो, जहाँ जिससे जिसकी ममता होती है, जिससे जिसका स्वार्थ सधता है, वह प्रिय लगता है। जिससे स्वार्थ सधा वह प्रिय अपना, जिससे स्वार्थ न सधा वह पराया, वह बिराना। यही तुम्हारी दुनियाँ का दस्तूर है न, उसे छोड़ो। हमारी दुनियाँ का दस्तूर सीखो। संकीर्णता नहीं, यहाँ ममता नहीं, यहाँ स्वार्थ नहीं, यहाँ सभी अपने हैं। सबमें अपनी ही आत्मा है, ऐसा सोचा जाता है। तुम भी इसी प्रकार सोचो। फिर हम इतने चन्द्र बिम्बों के सहचर रहते तुम्हें सूनापन प्रतीत न होगा।
तुम तो यहाँ कुछ साधना करने आये हो न, साधना करने वाली इन गंगा को देखते नहीं, प्रियतम के प्रेम में तल्लीन होकर उनसे मिलने के लिए कितनी तल्लीनता और आतुरता से चली जा रही है। रास्ते के विघ्न उसे कहाँ रोक पाते हैं? अन्धकार और अकेलेपन को वह कहाँ देखती है? लक्ष्य की यात्रा से एक क्षण के लिए भी उसका मन कहाँ विरत होता है? यदि साधना का पथ अपनाना है तो तुम्हें भी यह अपनाना होगा। जब प्रियतम को पाने के लिए तुम्हारी आत्मा भी गंगा की धारा की तरह द्रुतगामी होगी तो कहाँ भीड़ में आकर्षण लगेगा और सूनेपन में भय जगेगा? गंगातट पर निवास करना है तो गंगा की प्रेम साधना भी सीखो साधक !
शीतल लहरों के साथ अनेक चन्द्र बालक नाच रहे थे। मानो अपनी मथुरा में कभी हुआ-रास, नृत्य प्रत्यक्ष हो रहा हो। लहरें गोपियाँ बनीं, चन्द्र ने कृष्ण रूप धारण किया, हर गोपी के साथ एक कृष्ण ! कैसा अद्भुत रास नृत्य यह आँखें देख रही थीं। मन आनन्द से विभोर हो रहा था। ऋतम्भरा प्रज्ञा कह रही थी-“देख-देख ! अपने प्रियतम की झाँकी देख। हर काया में आत्मा उसी प्रकार नाच रही है, जैसे गंगा की शुभ्र लहरों के साथ एक ही चन्द्रमा के अनेक बिम्ब नृत्य कर रहे हों। ” सारी रात बीत गयी उषा की अरुणिमा प्राची में प्रकट होने लगी। जो देखा, अद्भुत था। सुनेपन का भय चला गया। कुटी की ओर पैर धीरे-धीरे लौट रहे थे। सूनेपन का प्रकाश अब भी मस्तिष्क में मौजूद था।
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